गाँव के नुक्कड़ पर एक बरगद का पेड़ हुआ करता था. उसकी विशाल छाया में दिन ढलते ही एक चाय की लगी लगती थी. चाय तो सिर्फ बहाना थी, असल में तो दिलों का मिलाप होता था वहाँ. एक दिन बरगद के नीचे चाय की प्यालियों के बीच बैठी थी लक्ष्मी. उसकी आँखों में उदासी झलक रही थी.
लक्ष्मी गाँव की ही थी, पर पिछले साल उसके पति रामू किसी हादसे में चला गया था. अकेली लक्ष्मी अब दो छोटे बच्चों को संभाल रही थी. दिनभर खेतों में मेहनत, शाम को चाय बेचना, फिर बच्चों को सुलाना, यही उसकी जिंदगी बन गई थी. उसी शाम पड़ोसी चाची उसकी चिंता समझ गईं. उन्होंने प्यार से पूछा, “बेटी, क्या हुआ, इतनी उदास क्यों हो?”
लक्ष्मी ने आह भरते हुए बताया, “चाची, कल महीने का किराया देना है, पर अभी तक पूरी रकम जुटा नहीं पाई. डर लगता है मकान मालिक हमें निकाल देगा.”
चाची कुछ देर चुप रहीं, फिर धीरे से बोलीं, “लक्ष्मी, चिंता मत करो. गाँव में सब अपने हैं. हम सब मिलकर तुम्हारी मदद करेंगे.”
दूसरे दिन से ही गाँव में एक बदलाव आया. बच्चे लक्ष्मी की चाय की दुकान पर उसकी मदद करने लगे. पड़ोसी औरतें बच्चों को स्कूल छोड़ने-लाने लगीं. कुछ लोगों ने मिलकर लक्ष्मी के खेत का काम भी बांट लिया.
लक्ष्मी के आँखों में फिर से चमक लौट आई. उसने देखा कि वह अकेली नहीं है, पूरा गाँव उसके साथ खड़ा है. उसकी बड़ी-बड़ी चिंताएं छोटी हो गईं, उनकी जगह राहत और शुकून ने ले ली.
कुछ महीनों बाद लक्ष्मी ने खेत में ही एक छोटा सा घर बना लिया. उसके हाथों में सख्ती थी, पर चेहरे पर मुस्कान. अब शाम की चाय में सिर्फ चाय नहीं होती थी, बल्कि वहाँ होता था गाँव के मिलन का त्योहार. हर कोई बढ़-चढ़कर लक्ष्मी की मदद करता, और लक्ष्मी खुश होकर सबको चाय पिलाती.
आंचल की छाया में पनपी थी ये दयालुता. इस कहानी ने बताया कि जीवन की मुश्किलों में अकेले लड़ने की ज़रूरत नहीं होती. थोड़ी सी दयालुता, थोड़ा सा साथ, जीवन की गाड़ी को आसानी से पहाड़ियों पर चढ़ा सकता है. ये कहानी है मानवता की, जो हर मुश्किल को आसान बना देती है, और दुनिया को और भी खूबसूरत बनाती है.