गांव के बाहरी छोर पर एक छोटा मकान था, जहां रीमा अकेली रहती थी. उसकी ज़िंदगी में सिर्फ एक साथी था – रॉकी, एक प्यारा सा आवारा कुत्ता. रीमा रॉकी को बचाकर लाई थी, तब वह घायल और अकेला था. दोनों ने एक-दूसरे को अपना लिया, उनकी दोस्ती ज़िंदगी का गहरा अहसास बन गई.
एक दिन रीमा बीमार पड़ गई. उसे खाँसी हो रही थी, सिर में ज़ोरदार दर्द था और शरीर बेहाल था. रॉकी समझ नहीं पा रहा था क्या हो रहा है, पर रीमा की बेचैनी उसके लिए भी बेचैनी बन गई. वह लगातार उसके पास बैठा रहता, उसकी बेताबी को दूर करने की कोशिश करता.
गांव वाले रीमा के घर से आती खांसी की आवाज़ सुनकर इकट्ठा होने लगे. उन्होंने समझा कि वह अकेली है और बीमार है. बूढ़ी चाची आगे आईं, वह अक्सर रीमा को दूर से देखा करती थीं. उन्होंने रीमा की दवाइयां लाकर दीं, उसका माथा ठीक किया और कुछ हलवा बनाया.
धीरे-धीरे रीमा को आराम हुआ, उसकी खांसी कम हो गई. उसने बूढ़ी चाची का शुक्रिया अदा किया. बूढ़ी चाची ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटी, कभी किसी बीमार को अकेला छोड़ना नहीं चाहिए. यह हमारी ज़िम्मेदारी है एक-दूसरे का ख्याल रखना.”
रीमा के मन में कुछ जगा. उसने सोचा कि कैसे रॉकी ने उसकी बीमारी में उसका साथ दिया था, बिल्कुल वैसे ही बूढ़ी चाची ने भी उसकी देखभाल की. उसे एहसास हुआ कि सहानुभूति सिर्फ इंसानों के लिए नहीं होती, यह हर प्राणी के लिए ज़रूरी है.
उस दिन से रीमा गांव के बूढ़े लोगों की मदद करने लगी. वह उनके घर का सामान उठाती, दवाइयां लाती और उनके साथ बातें करती. रॉकी हमेशा उसके साथ होता, जैसे बोल रहा हो, “मैं भी साथ हूं!”
गांव वाले रीमा को देखकर हैरान थे. पहले वह सिर्फ एक अकेली लड़की थी, जिसे इग्नोर किया जाता था. पर अब वह दूसरों की ज़रूरतों को समझती थी, उनकी मदद करती थी. उसकी सहानुभूति से गांव का माहौल बदल गया, सब एक-दूसरे की ओर दयालु होने लगे.
रीमा की कहानी हमें सिखाती है कि सहानुभूति एक जादुई चाबी है, जो हमारे दिलों के दरवाजे खोल देती है. जब हम दूसरों के दुःख को समझते हैं, उनकी मदद करते हैं, तो न सिर्फ उनकी ज़िंदगी बेहतर होती है, बल्कि हमारी ज़िंदगी भी खुशियों से भर जाती है. छोटे कदम, बड़ी खुशियां ला सकते हैं, बस ज़रूरत है सहानुभूति के उस छोटे से बीज को अपने दिल में बोने की.