पहाड़ों की रानी थी हिमवंत. उसकी चोटियाँ छूतीं आसमान को, जड़ें गढ़ी थीं धरती के गर्भ में. घमंड था उसे अपनी ऊँचाई पर, गूँजाता था उसका स्वर घाटियों में, “नतम हो हर कोई मेरे सामने, मैं हूँ पहाड़ों की महारानी!”
नीचे बहती थी सरिता, नदी छोटी सी, परंतु धारा अनंत. वह हंसकर झिलमिलाती थी, गाती थी अपना मधुर राग, छूती थी हर कंकड़, हिलाती थी हर पात. पहाड़ के गरजने पर वह मुस्कुराकर कहती, “हे पहाड़, अपने अहंकार में मत खो जाना, नीचे देखो बहती धारा, छोटी हूँ पर हार नहीं मानती, हर बाधा पार कर लेती हूँ, यही तो है असली शक्ति!”
पहाड़ हँसता था नदी की बातों पर, उसे लगता था नदी उसकी दया पर निर्भर है, वह जब चाहे रोक लेगा उसकी धारा. एक दिन तूफान आया, बादल गरजे, बिजली कड़की. बारिश ने पहाड़ के सीने को चीर डाला, मिट्टी बहने लगी. घबराया पहाड़, उसकी नींव हिलने लगी.
लेकिन नदी? वह और तेज से बही, मिट्टी को बहाकर ले गई, अपने बहाव में समेट ली. बनी सैकड़ों नदियों, खेतों को सींचा, प्यासे को पानी दिया. पहाड़, टूटा-फूटा खड़ा था, अब उसकी आवाज़ में गरज नहीं थी, केवल कानाफुसी थी, “नदी तुम सच थी, क्षमा करो मेरा घमंड!”
नदी ने हंसकर कहा, “पहाड़, सम्मान खोने से बड़ा नहीं होता, सभी से मिलकर बनता है यह संसार. नदी और पहाड़, दोनों का मिलन बनाता है सुंदर घाटी, सीखो सबका सम्मान करना, यही है जीवन का सार!”
तभी से पहाड़ और नदी साथ रहने लगे, एक-दूसरे का सम्मान करते हुए. पहाड़ ने सीखा कि असली ताकत घमंड में नहीं, धारा के प्रवाह में होती है. और नदी ने बताया कि छोटे होते हुए भी सबको जोड़कर, बहते हुए ही जीवन सार्थक होता है.
ये कहानी है सम्मान की, जो बड़े-छोटे, ऊँचे-नीचे के भेद मिटा देती है, और जिंदगी को बनाती है एक खूबसूरत रचना.