गाँव के बाहरी छोर पर एक छोटा-सा झोंपड़ा था, जहाँ मोहन अपनी बहन, गुड़िया के साथ रहता था. मोहन बोल नहीं सकता था, पर उसकी आँखों में एक गहरी समझ छिपी होती. गुड़िया उसकी आवाज़ थी, उसके हाथ, उसके पैर. वो दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे थे.
एक दिन, गाँव में मेला लगा. बच्चे हँसते-खेलते झूलों पर झूम रहे थे, खिलौने खरीद रहे थे, मीठी-मीठी गोलियाँ खा रहे थे. गुड़िया की आँखों में भी वही लालसा झलकी, पर उनके पास उस सब के लिए पैसे नहीं थे.
मोहन ने गुड़िया का हाथ पकड़ा, उसे झूले की तरफ ले गया. एक छोटी लड़की झूल रही थी. मोहन ने इशारों में उससे पूछा, “क्या हम भी झूल सकते हैं?” छोटी लड़की ने गुर्राकर मना कर दिया और अपनी माँ के पास चली गई.
गुड़िया उदास होकर बैठ गई, आँखों में आंसू भर आए. मोहन ने देखा, समझ गया. वो झोंपड़े में गया, कुछ पुराने कपड़े लाया और उन्हें एक जगह रख दिया. फिर उसने इशारों में गुड़िया को समझाया.
गुड़िया समझ गई. वो और मोहन मिलकर उन कपड़ों को साफ करने लगे, सुंदर गुड़ियों की तरह सजाने लगे. मेले में घूमते हुए, उन्होंने उन गुड़ियों को बेचना शुरू किया. धीरे-धीरे, बच्चों को उनकी गुड़िया पसंद आने लगीं. कुछ ही समय में, उनके सारे कपड़े-गुड़िया बिक गए.
मोहन और गुड़िया के हाथ में कुछ पैसे आ गए. वो झूले की तरफ गए. इस बार, लड़की की माँ ने उन्हें मना नहीं किया. मोहन और गुड़िया ने हंसते-खेलते झूला झूमा, उनकी खुशी आसमान को छू रही थी.
उस शाम, मोहन और गुड़िया अपने झोंपड़े में लौटे. उनके पास खाने को ज्यादा कुछ नहीं था, पर उनके चेहरे पर खुशियां थीं. उन्होंने एक-दूसरे को गले लगाया, उनकी आँखों में एक अनकही भाषा बोल रही थी.
मोहन और गुड़िया की कहानी हमें सिखाती है कि प्यार और समझ किसी भी बाधा को पार कर सकती है. बोलने की ज़रूरत नहीं होती, बस एक-दूसरे के दर्द को समझना और उसकी खुशियों में शामिल होना काफी होता है. ये मूक प्यार की गूंज है, जो हमें बताती है कि ज़िंदगी में सबसे बड़ा खजाना प्यार और सहानुभूति है.