गाँव के किनारे रहती थी चिंता, एक ईमानदार और मेहनती कुम्हारिन. उसके हाथों से निकले मिट्टी के बर्तन न सिर्फ खूबसूरत होते, बल्कि बड़ी ईमानदारी से बनाए जाते. चिंता कभी घटिया मिट्टी या कम मात्रा वाले बर्तन नहीं बनाती थी. उसकी ईमानदारी ही उसकी पहचान थी.
एक दिन शहर से एक व्यापारी गाँव आया. उसकी नजर चिंता के बर्तनों पर पड़ी. वो बर्तन कितने मजबूत और खूबसूरत थे, देखते ही व्यापारी का मन लालच से भर गया. उसने चिंता से सौदा किया, “ये बर्तन मुझे बेचो, पर मुझे कम दाम में चाहिए. तुम नकली मिट्टी मिलाकर बनाओ, थोड़ा कम मिट्टी डालो, मैं तुम्हें अच्छी कीमत दूंगा.”
चिंता के हाथ थम गए. पैसों की लालच उसे भी दिखी, पर उसी पल उसकी ईमानदारी ने जोर मारा. उसने दृढ़ता से कहा, “मैं आपके लिए बर्तन बनाऊंगी, लेकिन नकली मिट्टी नहीं मिला सकती. मेरे हाथ सिर्फ सच्ची मिट्टी से ही कला करते हैं. और कम मात्रा वाले बर्तन बनाकर मैं खुद को धोखा नहीं दे सकती.”
व्यापारी गुस्से में आ गया. उसने कहा, “अगर तुम ऐसा करोगी तो कोई तुम्हारे बर्तन नहीं खरीदेगा, तुम्हारा धंधा चौपट हो जाएगा!”
चिंता ने मुस्कुराकर कहा, “मैं अपनी ईमानदारी नहीं बेच सकती. अगर मेरा धंधा चौपट हो जाए, पर मैं अपना सिर ऊँचा रखूंगी. मेरे बर्तनों में सिर्फ मिट्टी नहीं, बल्कि ईमानदारी की चमक भी होती है.”
व्यापारी हार मानकर चला गया. पर चिंता के शब्दों ने शहर में धूम मचा दी. लोग उसकी ईमानदारी के बारे में सुनने लगे. धीरे-धीरे शहर से भी लोग चिंता के बर्तन खरीदने लगे. उनकी खूबसूरती और मजबूती के साथ ही उनकी ईमानदारी भी लोगों को आकर्षित करती थी.
चिंता का धंधा नहीं चौपट हुआ, बल्कि और फूल-फला. उसकी ईमानदारी ही उसकी पहचान बन गई. वह पूरे शहर में मशहूर हो गई, न सिर्फ अपने बर्तनों के लिए, बल्कि अपनी सोने की ईमानदारी के लिए.
ये कहानी है ईमानदारी की, जो जीवन का असली धन है. यह सिर्फ दूसरों से नहीं, खुद से भी ईमानदार होने के बारे में है. यह कहानी बताती है कि ईमानदारी का रास्ता भले ही कठिन हो, परंतु इसका फल मीठा होता है, और यह फल ही जीवन को सार्थक बनाता है.